Nishant Nikhil

ज़िन्दगी बहुत सरल लगती थी ना तुझे,
माँ खाना बना दिया करती,
दीदी होमवर्क कर देती,
और पापा शाम को शहर घुमा दिया करते।
आज खुद खाना बनाते हो,
खुद सारे काम करते,
और खुद शाम को अकेले में शहर घूमते हो।
कभी पूरी बिखरी हुई,
कभी सारी समेटी हुई,
उलझी हुई, कभी सुलझी हुई,
तेरे फितरत-ऐ-काकुल सी जिंदगी,
गमगीन सही, नाउम्मीद नहीं है।
गुनगुनाते बढ़ रहा, हाथों में रेत सा गुलिस्तां है,
उंगलियों के तह से छू रहा, बहता हुआ जहां है।
आंखों मे देखना भरके, इशारे-इशारे जाम है,
जो चले जाते है, तेरे बालों से खुल कर, बिखरे मेरे अरमां हैं।
ऐ ज़िन्दगी, तुझमे ही तेरी तलाश ढूंढ रहा हूँ।
जो गाने सुनता हूँ, तो तेरी आवाज़ ढूंढ रहा हूँ।
जो तू दिखे कहीं, तो रस्ते हज़ार ढूंढ रहा हूँ।
ऐ ज़िन्दगी, तुझमे ही तेरी तलाश ढूंढ रहा हूँ।
तुझे सुरों के पीछे छुपा रहा हूँ,
ज़िन्दगी तुझे खुद से ही बचा रहा हूँ।
सारे कदम बेजार, ना-समझे, चलता जा रहा हूँ,
अपने चाल के गुमान में अंजान शहर नापता जा रहा हूँ।
कि आज इक गुमटी पे रुका था, जहाँ मंजिल नहीं बस राहें दिखती है,
पर मंजिल होती ही क्या है, देखा नहीं, सोचा नहीं, पाया नहीं, बस पूछता जा रहा हूँ।
सरल - Easy
फितरत - Character
काकुल - Tresses (a long lock of a woman's hair)
This photograph was taken at Paris. These compositions are from random points of time, random walks and random states of mind.